भले आदमी हैं संजीव जी डॉ संजीव कुमार से मेरा परिचय कोई बहुत पुराना नहीं है। मैं उन्हें इंडिया नेटबुकस के स्वामी और एक लेखक के रूप में थोड़ा बहुत जानता था पर उनसे व्यक्तिगत रूप से परिचय हुआ मित्र गिरीश पंकज जी के कारण। दरअसल हुआ यह था कि गिरीश जी रायपुर से पधारे थे और डॉ. संजीव कुमार के घर नोएडा में ठहरे थे । अब गिरीश जी आए तो मिलना तो था ही सो मैं गिरीश जी से मिलने संजीव जी के घर पहुंचा वहां उनसे मुलाकात हुई । काफी देर बातें हुईं । भविष्य की योजनाओं पर चर्चा हुई। साहित्य में और नया क्या किया जा सकता है, युवाओं को कैसे आगे लाया जा सकता है, उनके विकास के लिए किन योजनाओं को अमल में लाया जा सकता है ? इन सब विषयों पर बातें हुईं । व्यंग्य पर उनकी जानकारियों ने चौंकाया भी। उस दिन लगा कि संजीवजी पूरी तैयारी के साथ इस क्षेत्र में उतरे हैं। वार्तालाप सत्र के बाद संजीव जी ने और उनकी श्रीमती मनोरमाजी ने बहुत इसरार करके भोजन कराया । भोजन तो स्वादिष्ट था ही पर जिस मनुहार और आत्मीयता से यह काम किया गया था, वह आजकल के समय में तो काफी दुर्लभ हो चला है। चलते समय मेरा मन और गाड़ी दोनों काफी भरे- भरे से थे । मन के भरने का कारण संजीव जी और मनोरमाजी की आत्मीयता से जुड़ा था और वह कृतज्ञता ज्ञापित करने की प्रक्रिया में था तो गाड़ी की पिछली सीट संजीवजी के बंगले के पपीते के पेड़ों का शुक्रिया कर रही थी। उसी दिन से उनसे एक आत्मीय रिश्ता बन गया, मन ने मान लिया कि वह सचमुच में भले आदमी हैं। आज तक भी मन वही मानता आ रहा है।